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न ते॑ दू॒रे प॑र॒मा चि॒द् रजा॒स्या तु प्र या॑हि हरिवो॒ हरि॑भ्याम्। स्थि॒राय॒ वृष्णे॒ सव॑ना कृ॒तेमा यु॒क्ता ग्रावा॑णः समिधा॒नेऽअ॒ग्नौ ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। ते॒। दू॒रे। प॒र॒मा। चि॒त्। रजा॑सि। आ। तु। प्र। या॒हि॒। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरि॒ऽवः। हरि॑भ्या॒मिति॒ हरि॑ऽभ्याम् ॥ स्थि॒राय॑। वृष्णे॑। सव॑ना। कृ॒ता। इ॒मा। यु॒क्ता। ग्रावा॑णः स॒मि॒धा॒न इति॑ सम्ऽइधा॒ने। अ॒ग्नौ ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सभाध्यक्ष राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हरिवः) प्रशस्त घोड़ोंवाले राजन् ! जैसे (समिधाने) प्रदीप्त किये हुए (अग्नौ) अग्नि में (इमा) ये (सवना) प्रातःसवनादि यज्ञकर्म (कृता) किये जाते हैं, (तु) इसी हेतु से (ग्रावाणः) गर्जना करनेवाले मेघ (युक्ताः) इकट्ठे होके आते हैं, वैसे (स्थिराय) दृढ़ (वृष्णे) सुखदायी विद्यादि पदार्थ के लिये (हरिभ्याम्) धारण और आकर्षण के वेगरूप गुणों से युक्त घोड़ों वा जल और अग्नि से (आ, प्र, याहि) अच्छे प्रकार आइये। इस प्रकार करने से (परमा) दूरस्थ (चित्) भी (रजांसि) स्थान (ते) आपके (दूरे) दूर (न) नहीं होते हैं ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् लोगो ! जैसे अग्नि से उत्पन्न किये वर्षा के मेघ पृथिवी के समीप होते आकर्षण से दूर भी जाते हैं, वैसे अग्नि के यानों से गमन करने में कोई देश दूर नहीं होता। इस प्रकार पुरुषार्थ करके सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को उत्पन्न करो ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सभाध्यक्षः किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

(न) निषेधे (ते) तव सकाशात् (दूरे) विप्रकृष्टे (परमा) परमाणि दूरस्थानि (चित्) अपि (रजांसि) स्थानानि (आ) (तु) हेतौ (प्र) (याहि) गच्छ (हरिवः) प्रशस्तौ हरी विद्येते यस्य तत्सम्बुद्धौ (हरिभ्याम्) धारणाकर्षणवेगगुणैर्युक्ताभ्यां तुरङ्गाभ्यां जलाऽग्निभ्यां वा (स्थिराय) (वृष्णे) सुखसेचकाय पदार्थाय (सवना) प्रातःसवनादीनि कर्माणि (कृता) कृतानि (इमा) इमानि (युक्ताः) एकीभूताः (ग्रावाणः) गर्जनाकर्त्तारौ मेघाः। ग्रावेति मेघनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१०) (समिधाने) समिध्यमाने। अत्र यको लुक्। (अग्नौ) ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे हरिवो राजन् ! यथा समिधानेऽग्नौ इमा सवना कृता तु ग्रावाणो युक्ता भूत्वाऽऽगच्छन्ति तथा स्थिराय वृष्णे हरिभ्यामाप्रयाहि। एवं कृते परमा चिद् रजांसि ते दूरे न भवन्ति ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा पावकेनोत्पादिता वर्षिता मेघाः पृथिव्याः समीपे भवन्त्याकर्षणेन दूरमपि गच्छन्ति तथाऽग्न्यादियानैर्गमने कृते कोऽपि देशो दूरे न भवति। एवं पुरुषार्थं कृत्वाऽलमैश्वर्याणि जनयत ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वान लोकांनो ! अग्नीद्वारे उत्पन्न झालेले मेघ आकर्षणाने पृथ्वीवर पर्जन्य बनून येतात व काही वेळ दूरही जातात, तसेच अग्नीच्या यानाने गमन केल्यास कोणताही देश दूर नसते. याप्रकारे पुरुषार्थ करून संपूर्ण ऐश्वर्य उत्पन्न करा.